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कविता

थी. हूं..रहूंगी...

वर्तिका नंदा


सौभाग्यवती भव !

अधूरी कविता

आबूदाना

पुश्तैनी मकान

वामा से वामा तक

जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं
नहीं

सफ़र में धूप तो होगी, चल सको तो चलो

सुर

चौरासी हजार योनियों के बीच

इस मरुस्थल में

शायद यही हो वो

सबसे ताकतवर होता है...

 

सौभाग्यवती भव !

इबादत के लिए हाथ उठाए
सर पर ताना दुपट्टा भी
पर हाथ आधे खाली थे तब भी
बची जगह पर
औरत ने अपनी उम्मीद भर दी
जगह फिर भी बाकी थी
औरत ने उसमें थोड़ा कंपन रखा
मन की सीलन, टूटे कांच
और फिर
आसमान के एक टुकड़े को भर लिया
मेहंदी की खुशबू भी भाग कर कहीं से भर आई उनमें
चूड़ियां भी अपनी खनक के अंश सौंप आईं हथेली में

सी दिए सारे जज्बात एक साथ
उसके हाथ इस समय भरपूर थे

अब प्रार्थना लबों पर थी
ताकत हाथों में
क्या मांगती वो

खट्टा-मीठा

मीठा खाने का मन था आज भी
कुछ खट्टे का भी
अंगूर सा उछलता रहा मन
नमकीन की तड़प भी अजनबी थी
शाम होते-होते
थाल मे नीम के कसौरे थे
कुनबे को परोसने के बाद
स्त्री के हिस्से यही सच आता है

 

अधूरी कविता

थके पांवों में भी होती है ताकत
देवदारों में चलते हुए
ये पांव
झाड़ियों के बीच में से राह बना लेते हैं
गर
भरोसा हो
सुबह के होने का
सांसों में हो कोई स्मृति चिह्न
मन में संस्कार
और उम्मीदों की चिड़िया
जिंदा है अगर
तो जहाज के पंछी को
खूंटे में कौन टांग सकता है भला

 

आबूदाना

पता बदल दिया है
नाम
सड़क
मोहल्ला
देश और शहर भी

बदल दिया है चेहरा
उस पर ओढ़े सुखों के नकाब
झूठी तारीफों के पुलिंदों के पुल

दरकते शीशे के बचे टुकड़े
उधड़े हुए सच

छुअन के पल भी बदल दिए हैं
संसद के चौबारे में दबे रहस्यों की आवाजें भी
खंडहर हुई इमारतों में दबे प्रेम के तमाम किस्सों पर
मलमली कपड़ों की अर्थी बिछा देने के बाद
चांद के नीचे बैठने का अजीब सुख है

सुख से संवाद
चांद से शह
तितली से फुदक मांग कर
एक कोने में दुबक
अतीत की पगडंडी पर
अकेले चलना हो
तो कहना मत, खुद से भी

खामोश रास्तों पर जरूरी होता है खुद से भी बच कर चलना

ठगिनी माया

सफर ठगे जाने के बाद शुरू होता है
अपने से
पराए से
किसी पराए अपने से

बीचों बीच रौशनी के बुझने
सुरंग के लंबे खिंच जाने
मायूसी की लंबी लकीर के बीच

ठगे जाने के मुहावरे हमेशा पुराने होते हैं
लेकिन ठगा गया इंसान नया
और उससे निकला सबक भी

 

पुश्तैनी मकान

सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेले नहीं होती
उसका साया होती है मजबूरी
आंचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य

औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती

सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा

सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ

औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शुरीर में घुले हुए

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का

सहारे की तलाश में
मरुस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
सांस भी डर कर लेती है
फिर भी
जरूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है

 

वामा से वामा तक

आंसू बहुत से थे
कुछ आंखों से बाहर
कुछ पलकों के छोर पर चिपके
और कुछ दिल में ही

सालों से अंदर मन को नम कर रहे थे

आज सभी को बाहर बुला ही लिया
आंसू सहमे
उनके अपने डर थे
अपनी सीमाएं
पर आज आदेश मेरा था
गुलामी उनकी

हां, आमंत्रण था मेरा ही
जानती हूं अटपटा सा

पर आंसुओं ने मन रखा
तोड़ा न मुझे तुम्हारी तरह
वे समझते थे मुझे
और मैं उन्हें एक साथी की तरह

आज इन्हें हथेली पर रखा
बहुत देर तक देखा
लगा
एक पूरी नदी उछल कर मुझे डुबो देगी
पर मुझे डर न था
मारे जाने की सदियों की धमकियों के बीच
मन ठहरा था आज

तो देखे आंसू बहुत देर तक मैंने
फिर पी लिया

मटमैला, कसैला, उदास, चुप, हैरान स्वाद था
मेरे अपने ही आंसुओं का

आज की तारीख
इनकी मौत है
पर इनकी बरसी नहीं मनेगी
कृपया न भेजें मुझे कोई शोक संदेश।

 

जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं

कुछ शहर कभी नहीं सोते
जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं|
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊंघती हुई रातों में भी

कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुंघरूओं के छनकते हैं वो
भरते हैं कितने ही आंगन
कुछ सुबहें भी कभी अंत नहीं होतीं
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहां कोई किरण

इतनी जिंदा सच्चाइयों के बीच
खुद को पाना जिंदा, अंकुरित, सलामत
कोई मजाक है क्या

 

सफ़र में धूप तो होगी, चल सको तो चलो

एकला कोई नहीं चलता
साथ चलते हैं अपने हिस्से के पत्थर
किसी और के दिए पठार
नमक के टीले
जिम्मेदारी से लदे जिद्दी पहाड़
दुखों के गट्ठर

कभी कभी होता ऐसा भी है
साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ खयाल
किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी
सरकती युवा हवा
बारीक लकीर सी कोई खुशी

ये सब आते हैं, कभी भी चले जाते हैं
ठिकाना कभी तय नहीं
खानाबदोशी, बदहवासी, उखड़े कदम
लेकिन इन सबमें टिके रहती है
पैरों के नीचे की जमीन
सर का टुकड़ा आसमान
उखड़ी-संभली सांसें
और एक अदद दिल

एकला कहां, कौन, कैसे

 

सुर

कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार
दीवार से टकराता है
बेसुरा नहीं होता फिर भी

कितनी ही बार छलकता है जमीन पर
पर फैलता नहीं

नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार
सुर बदला नहीं

सुर में सुख है
सुख में आशा
आशा में सांस का एक अंश
इतना अंश काफी है
मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए
पर इस सुर को
कभी सहलाया भी है ?
सुर में भी जान है
क्यों भूलते हो बार-बार

 

चौरासी हजार योनियों के बीच

सहम-सहम कर जीते-जीते
अब जाने का समय आ गया।

डर रहा हमेशा
समय पर कामों के बोझ को निपटा न पाने का
या किसी रिश्ते के उधड़
या बिखर जाने का।
उम्र की सुरंग हमेशा लंबी लगी - डरों के बीच।

थके शरीर पर
यौवन कभी आया ही नहीं
पैदाइश बुढ़ापे के पालने में ही हुई थी जैसे।

डर में निकली सांसें बर्फ थीं
मन निष्क्रिय
पर ताज्जुब
मौत ने जैसे सोख लिया सारा ही डर।

सुरंग के आखिरी हिस्से से
छन कर आती है रौशनी यह
शरीर छूटेगा यहां
आत्मा उगेगी फिर कभी
तब तक
कम-से-कम, तब तक
डर तो नहीं होगा न!

 

इस मरुस्थल में

उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी
आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर
बाहर आना मुमकिन न था

मन का मौसम कभी भी रुनझुन हो उठता
उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी
आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था

उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी
जो शरीर से संवाद करते थे

उन दिनों
सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून
सब अपने थे
उन दिनों जो था
वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है
चाबी मिलती नहीं

 

शायद यही हो वो

आकाश के फाहे निस्पंद
ऊनी स्वेटर बुनती चोटियों के बीच में से गुजरते हुए
कभी रोक पाए इनकी उड़ान क्या।

समय मौन था
सोचता
सृष्टि क्यों, कैसे, किस पार जाने के लिए रची ब्रह्मा ने

आत्माएं चोगा बदलतीं
आसमान की तरफ भगभगातीं प्रतिपल
शरीरों के दाह संस्कार
पानी में तैरते बचे आंसुओं के बीच
इतना बड़ा अंतर

निर्माण, विनाश, फिर निर्माण की तमाम प्रक्रियाओं में
समय की बांसुरी बजती रही सतत
वो सूक्ष्म-सा दो पैरों का जीव
इतनी क्षणभंगुर जमीन पर भी
गर्वित हो चलता कितना अज्ञानी

ज्ञान-अज्ञान, वैराग-अनुराग की सीमाओं से उठ पाना ही है
शायद
जीवन का सार

 

सबसे ताकतवर होता है...

मेरे सपने अपनी जमीन ढूंढ़ ही लेते हैं
बारिश की नमी
सूखे की तपी
रेतीले मन
और बाहरी थपेड़ों के बावजूद

खाली पेट होने पर भी
सपने मेरा साया नहीं छोड़ते
चांद के बादलों से लिपट जाने
सूरज के माथे पर बल आने
अपनों के गुस्साने
आवाज के भर्राने पर भी
ये सपने अपना पता-ठिकाना नहीं बदलते

सपनों की पंखुड़ी
किसी के भारी बूटों से कुचलती नहीं
हंटर से छिलती नहीं
बेरुखी से मिटती नहीं

सपनों का ओज
उदासी में घुलता नहीं
टूट कर बिखरता नहीं
अतीत की रौशनियों की याद में
पीला पड़ता नहीं

क्योंकि वे सपने ही क्या
गर वो छिटक जाएं
मौसमों के उड़नखटोलों से
क्या हो सकता है
इतना निजी, इतना मधुर, इतना प्यारा
सपनों की ओढ़नी
सपनों की बिछावन
सपनों की पाजेब
सपनों का घूंघट
सपनों की गगरी

काश!, कि तुम होते आज पास पाश
तो एक सुर में कहते
सबसे खतरनाक होता है
सपनों का मर जाना
और मैं कहती
सबसे ताकतवर होता है
सपनों का खिल-मिल जाना
हिम्मती हो जाना
फौलादी बन जाना
कवच हो जाना
हथेलियों की लकीरों को
आलिंगन में भर लेना कुछ इस तरह कि
सपने बस अपने ही हो जाएं
कि सपने
अपनों से भी ज्यादा अपने हो जाएं

हां, सबसे ताकतवर होता है
सपनों का खिल-मिल जाना

 


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